एक गाँव में एक साधू रहते थे जो दिन रात कड़ी तपस्या करते थे और उनका भगवान पर अटूट विश्वास था|
एक बार गाँव में भयंकर तेज बारिश हुई| बढ़ते हुए पानी को देखकर गाँव वाले सुरक्षित स्थान पर जाने लगे|
लोगों ने उस साधू को सुरक्षित स्थान पर चलने को कहा, लेकिन साधू ने यह कहकर मना कर दिया कि – तुम लोग जाओ मुझे मेरे भगवान पर पूरा भरोसा है, वे मुझे बचाने जरूर आएँगे|
धीरे धीरे पूरा गाँव पानी से लबालब हो गया और पानी साधू के घुटनों तक आने लगा तभी वहां पर एक गाड़ी आई और उसमें सवार व्यक्ति ने साधू को गाड़ी में आने के लिए कहा लेकिन साधू ने फिर यह कहकर मना कर दिया – मुझे तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं, मुझे मेरा भगवान जरूर बचाने आएगा|
गाड़ी वाला वहां से चला गया
पानी बढ़ने लगा और साधू भगवान को याद करने लगा तभी वहां पर एक नांव आई|
बचावकर्मी ने कहा – जल्दी से आइये मुनिवर, मैं आपको सुरक्षित स्थान पर छोड़ देता हूँ|
साधू ने कहा – मेरे भगवान मुझे बचाने जरूर आयेंगे, तुम यहाँ से चले जाओ|
बचावकर्मी ने कहा – गुरुवर मुझे अन्य लोगों को भी सुरक्षित स्थान पर पहुँचाना है, आप समय बर्बाद मत कीजिए, जल्दी आइये
लेकिन साधू ने अपनी जिद नहीं छोड़ी
आख़िरकार वह नांव वाला अन्य लोगों को बचाने के लिए वहां से चला गया|
कुछ ही देर बाद साधू बाढ़ में बह गए और उनकी मृत्यु हो गयी |
मरने के बाद साधू जब स्वर्ग पहुंचे तो उन्होंने भगवान से कहा – “हे भगवान मैंने कई वर्षों तक कड़ी तपस्या की और आप पर इतना विश्वास किया लेकिन आप मुझे बचाने नहीं आये|
भगवान ने कहा – मैंने तुम्हे बचाने एक बार नहीं बल्कि तीन बार प्रयत्न किया| तुम्हे क्या लगता है – तुम्हारे पास लोगों को, गाड़ी को और नावं को किसने भेजा था?????
Moral of Story
1. भगवान उसी की मदद करता है जो अपनी मदद खुद करता है|
2. असफलता केवल दो तरह की होती है – पहली असफलता अवसर को न पहचानना हैं और दूसरी असफलता अवसर को पहचानने के बाद भी प्रयास न करना है|
भगवान भरोसे रहने में भी विशेष प्रकार का आनन्द रहता है। इस अवस्था में आशा पूर्ण न होने पर असंतोष और दु:ख नहीं होता। भाग्य को दोष देकर मनुष्य चित्त को शान्ति दे लेता है। प्रयत्न का फल मिलने पर मुख से ईश्वर का धन्यवाद निकल जाता है और अभिमान करने के लिए स्थान नहीं रह पाता।
परमात्मा को अपनी सफलता-असफलता से प्रथक् रखने में तो सुख और दु:ख दोनों की अनुभूति होती है। सुख की अवस्था में मनुष्य को स्वयं में आत्मविश्वास और अपनी बुद्धि तथा प्रयास पर गर्व होता है। आत्मविश्वास और गर्व से उजड्डता तथा अभिमान एक ही पग आगे हैं और विरले ही इस पग को उठाने से रुक सकते हैं। असफलता के समय दु:ख में तो निराशा और उत्साहहीनता उत्पन्न होने लगती है। यह विनाश का किनारा ही है।
बी.ए., द्वितीय श्रेणी में, उत्तीर्ण कर निरंजनदेव नौकरी करने के लिए दिल्ली को चल पड़ा। उसके दूर का संबंधी लाला नारायणदास भारत सरकार के केंद्रीय कार्यालय में सुपरिण्टेण्डेंट था। एक बार नारायणदास लाहौर आकर उसके पिता के घर पर ठहरा था। उस समय उसने अपनी कारगुजारियाँ सुनाई थीं। निरंजनदेव ने उसकी बातों को सुना था और अपने मन में भी उसी के कार्यालय में नौकरी करने का विचार बना बैठा था। इस विचार में उसने उस दिन नारायणदास से पूछा था, ‘‘आपके कार्यालय में नौकरी मिलती किस प्रकार है ?’’
‘‘कोई बात कठिन नहीं हैं। परीक्षाफल निकलने पर वहां आ जाना और, जिस योग्य होगे, वैसा काम मिल जाएगा। वहाँ तो चपरासी से लेकर सचिव तक के स्थान रिक्त होते रहते हैं। थोड़ा साहस, थोड़ी चतुराई और थोड़ा बात करने का ढंग आना चाहिए, फिर तो उन्नति का मार्ग स्वयमेव बनता चला जाता है।’’
‘‘देखो निरंजनदेव ! मैं दसवीं पास करके वहाँ गया था और दस वर्ष में सुपरिंटेण्डेंट बन गया हूँ। मैं यत्न कर रहा हूँ कि अंडर सेक्रेटरी बन जाऊँ। यदि इस वर्ष नहीं तो अगले वर्ष बन जाऊँगा।’’
‘‘आप पर तो भगवान की कृपा प्रतीत होती है।’’
‘‘भगवान-वगवान कुछ नहीं। कम-से-कम मैंने तो उसे कभी देखा नहीं। मैं सैल्फ-मेड व्यक्ति हूँ। मैंने कभी किसी पर भरोसा नहीं किया। जिसके अस्तित्व को मैं मानता नहीं ऐसे परमात्मा पर भरोसा करने की मैं मूर्खता नहीं कर सकता।’’
यद्यपि निरंजनदेव के घर के संस्कारों तथा नारायणदास के विचारों में कोई समानता नहीं थी, तथापि वह नौकरी का लोभ छोड़ नहीं सका। परीक्षाफल निकलने पर वह दिल्ली हैवलौग स्क्वेयर में नारायणदास के क्वार्टर पर पहुँचा।
नारायणदास दफ्तर जाने के लिए तैयार खड़ा था। निरंजनदेव को अपने क्वार्टर के सामने तांगे पर से उतरते देख वह विस्मित-सा खड़ा रह गया।
‘‘आओ निरंजनदेव ! अपने आने की सूचना तो देते !’’
नारायणदास ने उलाहना-सा जताते हुए कहा।
‘‘इसकी आवश्यकता नहीं समझी।’’
‘‘और मैं घर पर न मिलता, तो ?’’
‘‘तो कहीं धर्मशाला या होटल में ठहरकर आपकी प्रतीक्षा कर लेता। मैं तो अपने सब काम परमात्मा के भरोसे ही करता हूँ। मुझे विश्वास था कि आप अवश्य मिल जाएँगे।’’
‘‘यदि तुम एक दिन का विलम्ब करके आते तो मैं कभी नहीं मिलता। मैं कल ही लम्बे टूर पर जा रहा हूँ।’’
‘‘तब तो मेरा परमात्मा पर भरोसा करना सार्थक हो गया। मेरी अन्तरात्मा ने मुझे प्रेरणा दी थी कि मैं कल ही लाहौर से चल दूँ। सो चला आया और आप मिल गये।’’
‘‘इस वर्ष मैंने बी.ए. पास कर लिया है और अब नौकरी प्राप्त करने में आपसे सहायता लेने के लिए आया हूँ।’’
‘‘मेरे विचार से तो इसके लिए भी परमात्मा को ही बुलाना पड़ेगा।’’ नारायणदास ने व्यंग्य के भाव में मुस्कराते हुए कह दिया।
‘‘परमात्मा ने तो आपके घर का मार्ग दिखा दिया है।’’
‘‘वह मेरा क्या लगता है ?’’
‘‘यह तो बताया नहीं। परन्तु उन्होंने मुझे आपके पास भेजा है, इसमें भी संदेह नहीं है।’’ कहता हुआ निरंजनदेव हँस पड़ा।
‘‘अच्छी बात है, तुम यहाँ ठहरो। मुझे दफ्तर जाने के लिए देर हो रही है। शाम को लौटने पर बात करेंगे।’’
लाला नारायणदास को परमात्मा के नाम से चिढ़ थी और साथ ही उसके भक्तों से भी उसे चिढ़ होने लगी थी। इस पर भी सांसारिक जीव होने के नाते वह अपना व्यवहार इस प्रकार का बनाये रहता था कि जिससे लोक-संग्रह में उसे प्रमाद न आने पाये।
लोक-संग्रह और लोक-कल्याण में तो अन्तर है ही। लाला नारायणदास का ध्यान लोक-संग्रह की ओर होता था। इस कार्य में सहसा कोई लोक-कल्याण का कार्य हो जाए तो दूसरी बात थी। परन्तु लोक-कल्याण उसके लिए कभी साध्य नहीं रहा।
उसको संदेह था कि निरंजन देव का कार्य करने से उसके लोक-संग्रह में वृद्धि होगी। दूसरे उसने अपने मन में विचार किया कि यदि यह कहता है कि परमात्मा मेरा सहायक है और वह सर्वशक्तिमान है तो फिर वह क्यों इसके लिए चिन्ता करे। इस कारण ताँगे में चढ़ते ही उसके मस्तिष्क से निरंजनदेव की बात निकल गई।
उसको निरंजनदेव की स्मृति तभी हुई, जब वह सायंकाल अपने घर वापस आया। अगले दिन सरकारी काम से उसे बाहर टूर पर जाना था। इस कारण उसे निरंजनदेव की समस्या पर विचार करने की आवश्यकता अनुभव हुई। जब वह दफ्तर से आया तो उस समय निरंजन उसके क्वार्टर के बाहर लॉन में एक कुर्सी पर बैठा हुआ कोई पुस्तक पढ़ रहा था। उसे देख नारायणदास पूछने लगा, ‘‘क्या पढ़ा जा रहा है ?’’
‘‘गांधीजी की आत्मकथा है।’’
नाक चढ़ाते हुए नारायणदास बोला, ‘‘अच्छा पढ़ो, मैं कपड़े बदलकर आता हूँ।’’
वास्तव में वह इसके विषय में अपनी पत्नी से बातचीत करना चाहता था। नारायणदास की पत्नी श्यामा यद्यपि निरंजदेव से परिचित नहीं थी, इस पर भी उसने उसके पिता लाला अर्जुनदेव का नाम सुना हुआ था। निरंजनदेव की माँ से उसका अधिक परिचय था। दोनों गुजराँवाला के एक ही मुहल्ले की लड़कियाँ थीं। विवाह के बाद वे परस्पर मिली तो नहीं थीं, परन्तु निरंजनदेव की माँ मोहिनी ने नारायणदास को पहचान लिया था। जब वह लाहौर में अर्जुनदेव के मकान पर ठहरा था, तो मोहिनी ने उसको देखा, पहचाना और बोली, ‘‘मैं आपको जानती हूँ। लाला वैशखीमल के घर आपका विवाह हुआ है न ? श्यामा मेरी सहेली थी। हम एक साथ खेलती थीं।’’
नारायणदास ने विचार किया कि निरंजनदेव की माँ की सहेली से पूछकर ही उसके विषय में विचार करना चाहिए। अत: वह भीतर गया तो श्यामा उसके सम्मुख आ गई। उसने पूछा, ‘‘चाय पियेंगे ?’’
‘‘क्यों, किसलिए पूछ रही हो ?’’
‘‘घर में मेहमान आया है न ?’’
‘‘ओह ! ठीक है। उसको भी चाय पीनी होगी। मैं कपड़े बदल लूँ, तब उसको बुला लेंगे। अच्छा यह बताओ, यह लड़का नौकरी की तालाश में आया है, मैं कल बम्बई, मद्रास, कलकत्ता के लिए जा रहा हूँ। एक महीना लग जाएगा। इसका क्या प्रबन्ध किया जाये ?’’
‘‘तब तो आज इसकी दफ्तर बुलवाकर इसकी अर्जी-पर्चा करवा देते।’’
‘‘बात यह है कि जब वह कहने लगा कि उसको परमात्मा पर बहुत विश्वास है तो मैंने समझा कि मैं इसके और परमात्मा के बीच में क्यों खड़ा होऊँ ? इस कारण मैं उसके विषय में बिल्कुल भूल ही गया था।’’
‘‘परन्तु वह तो आपको ही अपना परमात्मा समझकर यहाँ आया है। इस अवस्था में आप उसके परमात्मा के मध्य किस प्रकार आ सकते थे ?’’
‘‘तो तुम चाहती हो कि उसकी सहायता करनी चाहिए ?’’
‘‘मेरे कहने पर ही आप उसकी सहायता करेंगे क्या ?’’
‘‘परमात्मा की अपेक्षा मैं तुमको अधिक मानता हूँ।’’
श्यामा ने प्रेम-भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा तो नारायणदास ने कह दिया, ‘‘अब तो मैं जा रहा हूँ । तब तक चाहो तो उसको रख सकती हो। आने पर ही कुछ किया जा सकेगा।’’
‘‘वैसे तो आजकल गर्मी के दिन है। रात्रि को बाहर सो रहा करेगा। क्या विचार है आपका ?’’
‘‘ठीक है। घर में दो-दो लड़कियाँ हैं, तनिक सावधानी से रहना होगा।’’
‘‘क्यों, आपने इसमें कोई खराबी देखी है क्या ?