सत्य क्या है, Satya Kya hai

सत्य क्या है, Satya Kya hai

सत्य बोलना अच्छी बात है यह एक साधारण ज्ञान है । परन्तु सत्य क्या है ? सत्य एक भाव है जो निश्छलता, पवित्रता और अहिंसा का प्रतीक है । जैन धर्म में सत्य की परिभाषा है निरवद्य प्रवृत्ति । निरवद्य अर्थात पवित्र भाव, सावद्य अर्थात अपवित्र भाव ।

हिंसा, कपट, चोरी, अप्रामाणिकता, परिग्रह, काम वासना, क्रोध, अहंकार, हीनभावना, भय, घृणा, लोभ, मिथ्या धारणा, निन्दा करना, चुगली करना, राग-द्वेष, कलह आदि अपवित्र भाव हैं । इनमें प्रवृत्ति करना असत्य आचरण है ।

अहिंसा, मैत्री, प्रामाणिकता, निःस्पृहता, अनासक्ति, संतोष, शान्ति, अभय, करूणा, वीतरागता, प्रेम, संयम, अनुशासन आदि पवित्र भाव हैं । इनमें प्रवृत्ति करना सत्य आचरण है ।

किसी की गुप्त बात को प्रकाशित कर उसे अपमानित कर देना सत्य आचरण नही है । किसी में सुधार की भावना से बिना उसे अपमानित किए उसकी गल्ती की ओर इंगित करना सत्य आचरण है ।

सत्य भाषण का अर्थ है – वाणी का संयम, भाषा का विवेक । आज बहुत से कलह भाषा विवेक के अभाव में होते हैं ।

बात कहने का तरीका निर्माणात्मक होना चाहिए, विधवंसक नही । शत्रु के प्रति भी बात कहते समय अपशब्द, अपमानजनक शब्द, हिंसक शब्द, व्यंग्य आदि का प्रयोग न करना सत्य भाषण है ।

प्रश्न: सत्य क्या है?

उत्तर: लगभग दो हज़ार वर्षों पहले सत्य की जाँच पड़ताल की जा रही थी और इस पर निर्णय उन लोगों के द्वारा दिया गया था, जो झूठ के प्रति समर्पित थे। वास्तव में, एक पूरे दिन से भी कम समय में सत्य की जाँच पड़ताल छ: बार की गई थी, जिनमें से तीन धार्मिक थीं और तीन वैधानिक पड़तालें थीं। अन्त में, उन घटनाओं में सम्मिलित कुछ लोग इस प्रश्‍न “सत्य क्या है” का उत्तर दे सकते हैं?

गिरफ्तार होने के पश्चात् सत्य को पहले हन्ना नाम के एक व्यक्ति के सामने ले जाया गया, जो यहूदियों का पूर्व में एक भ्रष्ट महायाजक था। हन्ना ने जाँच पड़ताल के समय कई यहूदी व्यवस्थाओं को तोड़ा, जिसमें उनके घर पर ही मुकदमा चलाने, प्रतिवादी के विरूद्ध आत्म-आरोपों को प्रेरित करने और प्रतिवादी को मारने का प्रयास किया जाना इत्यादि सम्मिलित है, जो उस समय कुछ नहीं करने का दोषी था। हन्ना की जाँच के पश्चात्, सत्य को उस समय के शासन करते हुए महाजायक कैफा के सामने ले जाया गया, जो हन्ना का ही दामाद था। कैफा और यहूदी महासभा सन्हेद्रीन के सामने, बहुत से झूठे गवाह सत्य के विरूद्ध गवाही देने के लिए आ खड़े हुए, तथापि, वे कुछ भी प्रमाणित नहीं कर सके और कुछ भी गलत किए जाने के प्रति कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके।

कैफा ने सत्य पर दोष लगाने के प्रयास में कम से कम सात व्यवस्थाओं को तोड़ दिया : (1) जाँच पड़ताल को गुप्त में किया गया; (2) इसे रात में किया गया; (3) इसमें रिश्‍वत का उपयोग किया गया; (4) प्रतिवादी की ओर से अपने बचाव के लिए किसी को बोलने नहीं दिया गया; (5) 2-3 गवाहों की शर्तें पूरी नहीं हो सकी थी; (6) उन्होंने प्रतिवादी के विरूद्ध आत्म-आरोप वाली गवाही को उपयोग किया; (7) उन्होंने प्रतिवादी के विरूद्ध मृत्यु दण्ड का निर्णय उसी दिन पूरा किया। इन सारी गतिविधियों को यहूदी व्यवस्था में मना किया गया है। इतना होने पर भी, कैफा ने सत्य को दोषी ठहरा दिया, क्योंकि सत्य ने शरीर में परमेश्‍वर होने का दावा किया था, जिसे कैफा ने ईशनिन्दा कह कर पुकारा।

जब सवेरा हुआ, तब सत्य की तीसरी जाँच इस परिणाम के साथ आरम्भ हुई कि यहूदी सन्हेद्रीन ने सत्य को मार दिए जाने की घोषणा कर दी। तौभी, यहूदी महासभा के पास इस मृत्यु दण्ड को पूरा करने के लिए वैधानिक अधिकार नहीं था, इसलिए उन्हें सत्य को उस समय के रोमी राज्यपाल, पिन्तुस पीलातुस के सामने जाँच के लिए लाए जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। पिलातुस को तिबिरयुस ने यहूदी के पाँचवे राज्याधिकारी के रूप में नियुक्त किया था और उसने वहाँ पर इस पदवी पर 26 से लेकर 36 ईस्वी सन् तक शासन किया।

राज्यपाल के पास जीवन और मृत्युदण्ड दिए जाने का अधिकार था और वह सन्हेद्रीन के द्वारा दिए हुए मृत्युदण्ड के निर्णय को पलट सकता था। जब सत्य पिलातुस के सामने खड़ा हुआ था, तब उसके विरूद्ध और अधिक झूठों को लाया गया। उसके शत्रुओं ने उससे कहा, “हम ने इसे लोगों को बहकाते, और कैसर को कर देने से मना करते, और अपने आप को मसीह, राजा कहते हुए सुना है” (लूका 23:2)। यह एक सफेद झूठ था, क्योंकि सत्य ने प्रत्येक को उनके कर को अदा करने के लिए कहा था (मत्ती 22:21) और उसने कभी भी कैसर के प्रति स्वयं को एक चुनौती के रूप में प्रस्तुत नहीं किया था।

इसके पश्चात्, सत्य और पिलातुस के मध्य में एक बहुत ही दिलचस्प वार्तालाप हुआ। “तब पीलातुस फिर किले के भीतर गया और यीशु को बुलाकर उससे पूछा, ‘क्या तू यहूदियों का राजा है?’ यीशु ने उत्तर दिया, ‘क्या तू यह बात अपनी ओर से कहता है या दूसरों ने मेरे विषय में तुझ से कही?’ पीलातुस ने उत्तर दिया, ‘क्या मैं यहूदी हूँ? तेरी ही जाति और प्रधान याजकों ने तुझे मेरे हाथ सौंपा। तू ने क्या किया है?’

सत्य क्या है?

यीशु ने उत्तर दिया, ‘मेरा राज्य इस संसार का नहीं; यदि मेरा राज्य इस संसार का होता, तो मेरे सेवक लड़ते कि मैं यहूदियों के हाथ सौंपा न जाता: परन्तु मेरा राज्य यहाँ का नहीं।’ पीलातुस ने उस से कहा, ‘तो क्या तू राजा है?’ यीशु ने उत्तर दिया, ‘तू कहता है कि मैं राजा हूँ; मैं ने इसलिये जन्म लिया और इसलिये जगत में आया हूँ कि सत्य पर गवाही दूँ। जो कोई सत्य का है, वह मेरा शब्द सुनता है।’ पीलातुस ने उस से कहा, ‘सत्य क्या है?'” (यूहन्ना 18:33–38)।

पीलातुस ने प्रश्‍न किया, “सत्य क्या है?” यह प्रश्‍न अभी तक के इतिहास में गूँज रहा है। क्या यह जानने के लिए एक उदासीन इच्छा थी कि कोई भी उसे नहीं बता सकता था, यह एक सनक से भरा हुआ अपमान, या कदाचित् यीशु के शब्दों के प्रति झुँझलाहट भरा हुआ उदासीन उत्तर था?

आज के उत्तरआधुनिक संसार में जो इस बात का इन्कार करता कि सत्य को जाना जा सकता है, यह प्रश्‍न इसके उत्तर से और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। 


सत्य की परिभाषा करते हुए, इस बात पर ध्यान देना सहायतापूर्ण होगा कि सत्य क्या नहीं है:

वही सरल शब्दों में सत्य नहीं है। यह व्यावहारिकतावाद का दर्शन है — अर्थात् यह अन्तिम परिणाम — बनाम — तरीके का दृष्टिकोण है। वास्तव में, झूठ “कार्य” करता हुआ प्रकट हो सकते हैं, परन्तु वह तो अब भी झूठ ही हैं और उसमें सत्य नहीं हैं।

जो भी बात सुसंगत या समझ में आता है, वही सरल शब्दों में सत्य नहीं है। लोगों का समूह एक साथ मिलकर एक झूठ के आधार पर षड्यन्त्र रच सकता है, जिसमें वे सभी एक ही झूठी कहानी बताने के लिए सहमत हो जाएँ, परन्तु उनकी प्रस्तुति इसे सत्य नहीं बना देती है।

बात लोगों को अच्छी महसूस होती है, वह सत्य नहीं है। दुर्भाग्य से, बुरा समाचार भी सत्य हो सकता है।

सत्य की एक प्रस्तावित परिभाषा

जिस बात को बहुमत बोल रहा है, वह सत्य नहीं है। एक समूह के इक्याँनवे प्रतिशत लोग गलत निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं।

जो बात विस्तृत होती है, वह सत्य नहीं है। एक लम्बा, विस्तृत प्रस्तुतिकरण का भी परिणाम एक गलत निष्कर्ष में हो सकते हैं।

सत्य आशय की गई बात से परिभाषित नहीं किया जाता है। अच्छे प्रयोजन फिर भी गलत हो सकते हैं।

यह नहीं कि हम कैसे जानते हैं; सत्य वह है जो हम क्या जानते हैं।

• सत्य वह बात नहीं है, जिसे सरल शब्दों में हम विश्‍वास करते हैं। एक झूठ तो फिर भी झूठ ही रहता है।

• सत्य वह बात नहीं है, जिसे सार्वजनिक रूप से प्रमाणित किया गया है। एक सत्य को व्यक्तिगत् रूप से भी जाना जा सकता है (उदाहरण के लिए, जैसे एक गड़े हुए खजाने का स्थान)।

“सत्य” के लिए यूनानी शब्द अलैथीया है, जिसका शाब्दिक अर्थ “गुप्त-को खोल देना” या “कुछ भी छिपा हुआ नहीं” है। यह इस विचार को प्रकट करता है कि सत्य सदैव बना रहता है, सदैव खुला हुआ और सभों को देखने के लिए बिना किसी गुप्त या अस्पष्ट बात के सदैव उपलब्ध रहता है। “सत्य” के लिए इब्रानी शब्द इमेथ है, जिसका अर्थ है “दृढ़ता,” “स्थिरता” और “अवधि” से है। इस तरह की परिभाषा का अर्थ एक अनन्तकालीन तत्व और कुछ ऐसी वस्तु से है, जिसके ऊपर भरोसा किया जा सकता है।

एक दार्शनिक दृष्टिकोण से, सत्य को परिभाषित करने के लिए तीन तरीके हैं:


1. सत्य वह है, जो वास्तविकता के अनुरूप है
2. सत्य वह है, जो अपने उद्देश्य के अनुरूप होता है
3. सत्य वह है, जो यह मात्र यह बताना है कि कोई वस्तु उसी के जैसी है।

प्रथम, सत्य वह है, जो वास्तविकता या “क्या है” के अनुरूप है। यह वास्तविकता है। सत्य अपने स्वभाव के अनुरूप भी होता है। दूसरे शब्दों में, यह अपनी वस्तु के अनुरूप होता है और यह अपने सन्दर्भ के द्वारा जाना जाता है। उदाहरण के लिए, एक शिक्षक एक कक्षा के सामने खड़े होकर यह कह सकता है, “अब इस कमरे से निकलने का केवल एक ही द्वार दाहिनी ओर है।” क्योंकि हो सकता है कि कक्षा जो शिक्षक की ओर देख रही है, के लिए बाहर निकलने का द्वार बाईं ओर हो, परन्तु यह बात पूर्ण रीति से सत्य है कि शिक्षक की दाईं ओर ही द्वार है।

सत्य वह भी है,

जो अपने उद्देश्य के अनुरूप होता है। यह पूर्ण रूप से सत्य हो सकता है कि एक निश्चित व्यक्ति को एक निश्चित दवा के कई मिलीग्राम को लेने की आवश्यकता हो, परन्तु इच्छित परिणामों की प्राप्ति के लिए किसी अन्य व्यक्ति को उस ही दवा की अधिक या कम मात्रा में आवश्यकता हो सकती है। यह सम्बन्धात्मक सत्य नहीं है, परन्तु यह इसका एक उदाहरण है कि कैसे सत्य कैसे अपने उद्देश्य के अनुरूप होना चाहिए। एक रोगी के लिए यह विनती करना गलत (और सम्भावित खतरनाक) होगा कि उसका चिकित्सक उसे एक विशेष दवा की अनुचित मात्रा खाने के लिए दे, या यह कहना कि कोई भी दवा किसी विशेष रोग को ठीक कर सकती है।

संक्षेप में, सत्य वह है, जो यह मात्र यह बताना है कि कोई वस्तु उसी के जैसी है; यह वह तरीका है, जिसमें वस्तुएँ उनकी जैसी ही होती हैं, और इसे छोड़ कोई अन्य दृष्टिकोण गलत है। दर्शनशास्त्र का एक मूलभूत सिद्धान्त सत्य और त्रुटि के मध्य अन्तर को समझने में सक्षम होना है, या जैसा थॉमस एक्विनास ने कहा है, “भिन्नता करना एक दार्शनिक का कार्य है।”

सत्य को चुनौतियाँ


एक्विनास् के शब्द आज बहुत अधिक प्रचलित नहीं हैं। सापेक्षवाद अर्थात् सम्बन्धात्मकवादी सत्य के उत्तरआधुनिक युग में भिन्नता करना प्रचलन से बाहर हो रहा है। आज यह स्वीकार्य है कि, “यह सच है,” परन्तु यदि इसका पालन नहीं किया जाता है, “और इसलिए यह गलत है।” इसे विशेष रूप से विश्‍वास और धर्म के विषयों में देखा जा सकता है, जहाँ प्रत्येक विश्‍वास पद्धति जहाँ तक सत्य का सम्बन्ध है, समान स्तर पर होती है।

कई ऐसे दर्शन और वैश्विक दृष्टिकोण हैं, जो सच्चाई की अवधारणा को चुनौती देते हैं, तथापि, जब प्रत्येक की जाँच गहनता के साथ की जाती है, तब अपने स्वभाव में आत्म-पराजित हो जाते हैं।

सापेक्षवाद का दर्शन कहता है कि सभी सत्य आपस में सम्बन्धित हैं और पूर्ण सत्य जैसी कोई बात नहीं है। परन्तु एक व्यक्ति पूछ सकता है: यह दावा कि “सभी सत्य आपस में सम्बन्धित हैं” क्या एक सम्बन्धित सत्य या एक पूर्ण सत्य है? यदि यह एक सम्बन्धात्मक सत्य है, तब तो यह वास्तव में अर्थहीन हैं; हम यह कैसे जानते हैं कि यह कब और कहाँ लागू होता है? यदि यह एक पूर्ण सत्य है, तब पूर्ण सत्य का अस्तित्व है इसके अतिरिक्त, सापेक्षवादी अपने दृष्टिकोण को धोखा देते हैं, जब वह यह कहता है कि सापेक्षवादी का दृष्टिकोण गलत है — पूर्ण सत्य का अस्तित्व है, कहने वाले लोग सही क्यों नहीं हो सकते? संक्षेप में, जब एक सापेक्षवादी कहता है कि, “कोई सत्य नहीं है,” तब वह आपसे कह रहा है कि आप उस पर विश्‍वास नहीं करें और सबसे अच्छा कार्य उसके परामर्श का पालन करना है।

जो लोग सन्देहवादी दर्शन का पालन करते हैं, वे सभी तरह के सत्य पर सन्देह व्यक्त करते हैं। परन्तु क्या एक सन्देहवादी का सन्देह वास्तविक सन्देह; क्या वह अपने सत्य के दावे के ऊपर सन्देह करता है? यदि हाँ, तब क्यों सन्देह के ऊपर ध्यान दिया जाए? यदि ऐसा नहीं है, तो हम एक बात (दूसरे शब्दों में, पूर्ण सत्य अस्तित्व में है) के बारे में तो सुनिश्चित हो सकते हैं — सन्देहवाद, अपनी विडम्बना में ही इस विषय में पूर्ण सत्य बन जाता है। एक अज्ञेयवादी यह कहता है कि आप सत्य को नहीं जान सकते हैं। तथापि, यह एक मानसिकता की आत्म-पराजय है, क्योंकि यह कम से कम किसी एक सत्य को जानने का दावा तो करती है: कि आप सत्य को नहीं जान सकते हैं।

उत्तरआधुनिकतावाद के शिष्य किसी एक विशेष सत्य के होने की पुष्टि नहीं करते हैं। उत्तरआधुनिकतावाद के संरक्षक सन्त फ्रेडरिक नीत्शे ने सत्य का विवरण कुछ इस तरह से दिया है : “तब सत्य क्या है? रूपकों, उपनामों, और मानवशास्त्रों की एक चलित सेना के कारण… सत्य भ्रम है… यह ऐसे सिक्के जो अपने चित्र को ही खो चुके हैं और अब केवल धातु का ही रूप बचा है, अब यह सिक्कों के रूप में नहीं हैं।” विडम्बना यह है कि यद्यपि, एक उत्तरआधुनिकवादी अपने हाथों में सिक्के रखता है, जो कि अब “मात्र धातु” हैं, वह कम से कम एक पूर्ण सत्य की पुष्टि तो करता है: सत्य यह है कि किसी भी सत्य की पुष्टि नहीं की जानी चाहिए। अन्य वैश्विक दृष्टिकोणों की तरह ही उत्तरआधुनिकवाद आत्म-पराजित दृष्टिकोण है और यह अपने दावे के ऊपर ही खड़ा नहीं हो सकता है।

एक प्रचलित वैश्विक दृष्टिकोण बहुलवाद है, जो यह कहता है कि सत्य के सभी दावे समान रूप से मान्य हैं। बिना किसी सन्देह के यह असम्भव है। क्या दो प्रकार के दावे हो सकते हैं — एक कहता है कि एक औरत अभी गर्भवती है और दूसरा कहता है कि वह अभी गर्भवती नहीं है — क्या दोनों एक ही समय में सत्य हैं? बहुलवाद गैर-विरोधाभास के सिद्धान्त को इसकी नींव से ही उजागर कर देता है, जो यह कहता है कि

एक ही समय में एक ही बात एक ही अर्थों में “क” और “गैर-क” दोनों नहीं हो सकती है। जैसा कि एक दार्शनिक ने कहा है, जो कोई भी यह विश्‍वास करता है कि गैर-विरोधाभास का सिद्धान्त सही नहीं है (और, अपने मूल रूप से, बहुलवाद सत्य है), को मारा कूटा और जला दिया जाना चाहिए जब तक कि वे स्वीकार नहीं करते हैं कि मारा कूटा और जला दिया जाना वैसी ही बात नहीं है, जैसा कि मारा कूटा और जला दिया जाना होता है। इसके अतिरिक्त, ध्यान दें कि बहुलवाद कहता है कि यह सत्य है और इसका विरोध करना कुछ भी गलत नहीं है, यह एक ऐसा दावा है जो अपने मूलभूत सिद्धान्त को ही इन्कार करता है।

बहुलवाद की पृष्ठभूमि में सहिष्णुता की आत्मा एक खुले हुए हथियार वाले व्यवहार के रूप में कार्यरत् है। यद्यपि, बहुलवाद प्रत्येक के पास समान सत्य के होने के दावे की वैधता के विचार को ही भ्रमित कर देता है। अधिक सरल शब्दों में कहना सभी लोग समान हो सकते हैं, परन्तु सभी सत्य के दावे नहीं हो सकते हैं। एक विचार और सत्य के मध्य भिन्नता को समझने में बहुलवाद विफल रहता है, भिन्नता के लिए मोर्टिमर एडलर कहते हैं: “बहुलवाद केवल उन क्षेत्रों में इच्छित और सहनीय है, जो सत्य के विषय की अपेक्षा स्वाद के विषय हैं।”

सत्य का आक्रामक स्वभाव


जब सत्य की अवधारणा आक्रामक हो जाती है, तो यह सामान्य रूप से निम्नलिखित एक या अधिक कारणों के लिए होती है:

विश्‍वास और धर्म के विषयों में पूर्ण सत्य होने का दावा करने वाले किसी भी व्यक्ति के विरूद्ध एक सामान्य शिकायत यह होती है कि ऐसा दृष्टिकोण “संकीर्ण-मन” वाला होता है। यद्यपि, आलोचक यह समझने में विफल रहता है कि अपने स्वभाव से ही सत्य संकीर्ण है। क्या एक गणित शिक्षक 2 + 2 केवल 4 ही होते हैं, के दृष्टिकोण में विश्‍वास करने के कारण संकीर्ष है?

सत्य के प्रति एक और आपत्ति यह है कि ऐसा दावा करना घमण्ड से भरा हुआ है कि एक व्यक्ति सही है और दूसरा व्यक्ति गलत है। यद्यपि, गणित के उपरोक्त उदाहरण की ओर लौटते हुए, क्या यह गणित के शिक्षक के लिए घमण्ड की बात है कि वह बीजगणित की एक सूत्र के लिए एक ही सही उत्तर के होने पर जोर देता रहे? या क्या यह एक ताला बनानेवाला के लिए घमण्ड की बात है कि वह यही कहता रहे कि केवल एक ही कुँजी एक दरवाजे के ताले को खोल सकती है?

विश्‍वास और धर्म के विषय में पूर्ण सत्य धारण करने वालों के विरूद्ध तीसरा आरोप यह है कि ऐसा दृष्टिकोण लोगों को अपने में सम्मिलित करने की अपेक्षा लोगों को बाहर कर देता है। परन्तु इस तरह की शिकायत यह समझने में असफल हो जाती है कि सत्य, अपने स्वभाव के कारण ही, अपने विरूद्ध आने वाले विरोध को बाहर कर देता है। 4 के अतिरिक्त 2 + 2 की वास्तविकता से अन्य सभी उत्तरों को बाहर रखा गया है।

तथापि, सत्य के विरूद्ध एक और विरोध यह है कि यह आक्रामक है और इस दावे में निर्णायक है कि एक व्यक्ति के पास सत्य है। इसकी अपेक्षा, आलोचकों के तर्क ये हैं, सत्यता में ही सभी तरह का अर्थ पाया जाता है। इस दृष्टिकोण में समस्या यह है कि सत्य सत्यता, विश्‍वास और इच्छा से मुक्त होता है। यह बात कोई अर्थ नहीं रखती है कि एक व्यक्ति कितनी सत्यता के साथ एक गलत कुँजी के द्वारा द्वार के ताले को खुलने में विश्‍वास क्यों न रखता हो;

कुँजी फिर भी इसके अन्दर नहीं जाएगी और ताला नहीं खुलेगा। सत्य भी सत्यता के कारण प्रभावित नहीं होता है। एक व्यक्ति यदि जहर की बोतल उठा ले और सत्यता के साथ विश्‍वास करे कि यह नींबू का पानी है, तौभी जहर के दुर्भाग्यपूर्ण प्रभावों के कारण पीड़ित होगा। अन्त में, सत्य इच्छा के प्रति अभेद्य होता है। एक व्यक्ति तीव्र इच्छा कर सकता है कि उनकी गाड़ी में पेट्रोल समाप्त नहीं हुआ है, परन्तु यदि पेट्रोल की मात्रा बताने वाली सुई कहती है कि टैंक खाली है और गाड़ी आगे की ओर नहीं बढ़ेगी, तब संसार की कोई भी आश्चर्यचकित करने वाली इच्छा गाड़ी को आगे की ओर नहीं बढ़ाती रहेगी।

कुछ लोग स्वीकार करेंगे कि पूर्ण सत्य का अस्तित्व है, परन्तु इस तरह का दावा केवल विज्ञान के क्षेत्र में ही वैध है और विश्‍वास और धर्म के विषय में नहीं आता है। इस दर्शन को तार्किक सकारात्मकवाद कहा जाता है, जिसे डेविड ह्यूम और ए. जे. अय्यर जैसे दार्शनिकों के द्वारा प्रचलित किया गया था संक्षेप में, ऐसे लोगों का कहना है कि सत्य के दावे या तो (1) पुनरुक्ति (उदाहरण के लिए, सभी कुँवारे अविवाहित पुरुष होते हैं) या अनुभवजन्य रूप से पुष्टि योग्य (अर्थात् विज्ञान के द्वारा जाँच योग्य होना) होना चाहिए। तार्किक सकारात्मकवादी के लिए, परमेश्‍वर के बारे में सब बात अर्थहीन हैं।

जो लोग इस धारणा को मानते हैं कि केवल विज्ञान ही सत्य का दावा कर सकता है, इस बात को पहचानने में असफल हो जाते हैं कि सत्य के कई क्षेत्र होते हैं, जहाँ पर विज्ञान शक्तिहीन होता है। उदाहरण के लिए:

गणित विज्ञान गणित और तर्क के विषयों को प्रमाणित नहीं कर सकता है क्योंकि यह उन्हें पूर्व-कल्पित करता है।

तत्वमीमांसिक विज्ञान सत्यों को प्रमाणित नहीं कर सकता, जैसे कि मेरे अस्तित्व के अतिरिक्त मन का अस्तित्व नहीं हो सकता है।

नैतिकता विज्ञान और सदाचार के क्षेत्र में सत्य को प्रदान करने में असमर्थ है। उदाहरण के लिए, आप विज्ञान का प्रयोग यह प्रमाणित करने के लिए नहीं कर सकते हैं कि नाजी बुरे थे।

सूर्योदय की सुन्दरता जैसे सौन्दर्यवादी दृष्टिकोणों के बारे में सत्यों को बताने में विज्ञान असमर्थ है।

अन्त में, जब कोई भी इस कथन को देता है कि “विज्ञान ही केवल वस्तुनिष्ठक सत्य का एकमात्र स्रोत है,” उन्होंने एक दार्शनिक दावे को निर्मित किया है — जिसे विज्ञान के द्वारा जाँचा नहीं जा सकता है।

और ऐसे लोग भी पाए जाते हैं, जो यह कहते हैं कि पूर्ण सत्य केवल नैतिकता के क्षेत्र में ही लागू नहीं होता है। तथापि, इस प्रश्‍न के प्रतिउत्तर में कि, “क्या एक निर्दोष बच्चे की हत्या या उसे पीड़ा देना नैतिकता है,” पूर्ण और सार्वभौमिक है : नहीं, बिल्कुल भी नहीं। या इसे और अधिक व्यक्तिगत् बनाते हुए, जो लोग नैतिकता के विषय में सम्बन्धात्मक सत्य में विश्‍वास करते हैं, वे सदैव यही चाहते हुए प्रतीत होते हैं कि उनके जीवन केवल उन्हीं ही के प्रति पूर्णता से विश्‍वासयोग्य रहें।

सत्य क्यों महत्वपूर्ण है


जीवन के प्रत्येक क्षेत्र (विश्‍वास और धर्म को सम्मिलित करते हुए) में सत्य की अवधारणा को अपनाना और समझना क्यों इतना अधिक महत्वपूर्ण है। सरल शब्दों में कहना क्योंकि जीवन में गलत हो जाने के परिणाम निकलते है। यह देखते हुए कि एक व्यक्ति को गलत दवा दे दिए जाने से उसकी मृत्यु हो सकती है; एक निवेश प्रबन्धक के रूप में धन-सम्बन्धी गलत निर्णय ले लेना एक परिवार को कमजोर कर सकता है; गलत हवाई जहाज़ पर बैठना आपको वहाँ ले जाएगा जहाँ आप जाना ही नहीं चाहते हैं; और एक विवाह में अविश्‍वासी वैवाहिक जीवन साथियों के साथ कार्य करने का परिणाम एक परिवार के विनाश का कारण हो सकता है और सम्भवतः इससे बीमारी भी हो सकती है।

जैसा कि मसीही धर्ममण्डक रवि जकर्याह लिखते हैं,

“तथ्य यह है कि सत्य अर्थ रखता है — विशेष रूप से तब जीव आप झूठ के परिणामों को प्राप्त कर रहे होते हैं।” और यह विश्‍वास और धर्म के क्षेत्र की तुलना से किसी अन्त क्षेत्र में अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं। शाश्‍वतकाल अत्यधिक लम्बे समय तक चलने वाला एक गलत नहीं हो सकता है।

परमेश्‍वर और सत्य


यीशु की छ: जाँचों के समय, सत्य (धार्मिकता) और झूठों (अधार्मिकता) के मध्य विरोधाभास अचूकता के साथ पाए गए थे। वहाँ पर यीशु, अर्थात् सत्य उन लोगों के द्वारा जाँचे जाने के लिए खड़ा हुआ था, जिनकी प्रत्येक गतिविधि झूठ के ऊपर आधारित थी। यहूदी अगुवों ने व्यवस्था की लगभग प्रत्येक बात को प्रतिवादियों के ऊपर गलत दोष को लगाने के लिए तोड़ते हुए रूपरेखित की थी। उन्होंने बड़े परिश्रम के साथ किसी भी गवाही को खोजने के लिए निष्ठा से कार्य किया था, जिससे की यीशु को दोषी ठहरा सकें और अपनी निराशा में वे झूठे लोगों द्वारा सामने लाए गए झूठे प्रमाणों की ओर मुड़ गए थे। परन्तु इन बातों ने भी उन्हें उनके लक्ष्यों तक पहुँचने में कोई सहायता प्रदान नहीं की। इसलिए उन्होंने एक और व्यवस्था को तोड़ दिया और यीशु को ही स्वयं के ऊपर दोष लगाने के लिए मजबूर कर दिया।

Truth

एक बार पुन: पीलातुस के सामने खड़े होने पर, यहूदी अगुवों ने झूठ बोला। उन्होंने यीशु को ईशनिन्दा का दोषी माना, परन्तु क्योंकि वे जानते थे कि इतना पिलातुस को निरूत्तर करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा, उन्होंने दावा कि यीशु कैसर को ही चुनौती दे रहा था और रोमी व्यवस्था को भीड़ को कर न देने के द्वारा उकसाते हुए तोड़ रहा था। पिलातुस ने शीघ्र ही उनके सतही धोखे को पकड़ लिया, और उसने इन दोषों को भी सम्बोधित ही नहीं किया।

धर्मी यीशु की जाँच अधर्मियों के द्वारा की जा रही थी। दुर्भाग्यपूर्ण सत्य यह था कि अधर्मियों ने ही सदैव धर्मियों को सताया है। यही वह कारण था कि क्यों कैन को हाबिल ने मार डाला। सत्य और धार्मिकता के मध्य में सम्पर्क वैसा ही है जैसा कि झूठ और अधार्मिकता के द्वारा नए नियम के कई उदाहरणों में प्रदर्शित किया गया है:

सत्य 

• उस अधर्मी का आना शैतान के कार्य के अनुसार सब प्रकार की झूठी सामर्थ्य, और चिन्ह, और अद्भुत काम के साथ, और नाश होनेवालों के लिये अधर्म के सब प्रकार के धोखे के साथ होगा; क्योंकि उन्होंने सत्य के प्रेम को ग्रहण नहीं किया जिस से उनका उद्धार होता। और इसी कारण परमेश्‍वर उनमें एक भटका देनेवाली सामर्थ्य को भेजेगा कि वे झूठ की प्रतीति करें। ताकि जितने लोग सत्य की प्रतीति नहीं करते, वरन् अधर्म से प्रसन्न होते हैं, सब दण्ड पाएँ” (2 थिस्सलुनीकियों 2:9–12, अक्षरों को प्रभावित किया गया है)।

• “परमेश्‍वर का क्रोध तो उन लोगों की सब अभक्ति और अधर्म पर स्वर्ग से प्रगट होता है, जो सत्य को अधर्म से दबाए रखते हैं” (रोमियों 1:18, अक्षरों को प्रभावित किया गया है)।

• “वह हर एक को उसके कामों के अनुसार बदला देगा : जो सुकर्म में स्थिर रहकर महिमा, और आदर, और अमरता की खोज में हैं, उन्हें अनन्त जीवन देगा; पर जो विवादी हैं, और सत्य को नहीं मानते, वरन् अधर्म को मानते हैं, उन पर क्रोध और कोप पड़ेगा” (रोमियों 2:6–8, अक्षरों को प्रभावित किया गया है)।

• “वह [प्रेम] अनरीति नहीं चलता, वह अपनी भलाई नहीं चाहता, झुँझलाता नहीं, बुरा नहीं मानता। कुकर्म से आनन्दित नहीं होता, परन्तु सत्य से आनन्दित होता है” (1 कुरिन्थियों 13:5–6, अक्षरों को प्रभावित किया गया है)।